यत्र-तत्र लेखमालाः
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यत्र-तत्र लेखमाला - हमारा जीवन
लेखक: दर्शना सेठिया
देना हमें ऎसा ज्ञान, छोटा लगने लगे विज्ञान
देना हमें ऎसा ज्ञान, हमारे जिवन में कभी न हॊ अज्ञान
देने के लिए यह सभी गुण ऎ भगवान !
बनाया तुने एक इन्सान, तुने एक इन्सान...
पर इन्सान, इन्सान न रहा,
आ रहा हे उसे घुस्सा अपरंपार
इन्सान को बनाया तुने यह कैसा
हर तरफ हो रहा है पैसा ही पैसा...
खरिद सकता है गाडी यह पैसा
पर हो रहा हैं यह इन्सान कैसा !
लगता है जैसे जीवन घीर चुका हे एक बीमारी से,
जो नही सुधर सकती किसी भी दवाई से...
रस्ते पर बैठा एक भिखारी, रस्ते पर बैठा एक भिखारी,
जिसे देख भी नही रहा यह इन्सान!
कैंसे हे यह टॆन्शन,
हर तरफ बस पेन्शन ही पेन्शन
खिल रहे है फुल, पर हो रही हे मानवता गुल!
खिल रहि है कलियॉं, पर आज भी क्यु सुनी-सुनी लगती हे हमारी गलियॉं!!
आई होली, गई भी दिवाली,
पर यह क्या हर तरफ हो रही है बस घरों की बोली ही बॊली!
कुछ तो होंगी इस बिमारी की गोली,
जिसे आज तक कोई नहीं बना पाया...
होली न रहा रंगो का त्यौहार,
बस खा रहां हे यह गरीब मार...
करॊं कुछ तो ऎसा कमाल,
कि हो जाए इन्सानियत मालामाल...